आर्य वीर दल का इतिहास
आर्य बाल/युवकों की संस्थाएं
आर्य कुमार सभाओं / आर्य वीर दलों की स्थापना की पृष्ठभूमि

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जब मुम्बई में 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की तो उनके प्रत्यक्ष सम्पर्क में आए पुरुष उनके उपदेशों को आत्मसात कर उन्हें जन-जन में फैलाने के कार्य में प्राण पण से जुट गए। फलस्वरूप नगर-नगर और ग्राम-ग्राम में आर्य समाजों की स्थापना होने लगी जिससे अगले 50 वर्षों में ही भारतवर्ष के कोने-कोने में सहस्त्राधिक आर्य समाजें स्थापित हो गई। चूंकि यह काल पिछले पांच छः वर्षों में अवनति को प्राप्त हो गए एवं पद दलित वैदिक धर्म के पुनरुद्धार का काल था, जिसमें विभिन्न मत-मतान्तरों द्वारा फैलाए गए अज्ञानान्धकार को दूर करने के लिए खण्डन मण्डन एवं शास्त्राओं को एक अनिवार्य अस्त्र के रूप में अपनाया गया तो इससे विधर्मी तिलमिला उठे जिससे तक का उत्तर तर्क से देने में असहाय होकर उन्होंने हिंसा का आश्रय लेना आरम्भ कर दिया।


30 अक्टूबर 1883 को (दीपावली के दिन) आर्य समाज के संस्थापक स्वयं महर्षि दयानन्द सरस्वती का बलिदान इन्हीं परिस्थितियों में दूध में संखिया पिला देने के फलस्वरूप हुआ । अगले दस वर्षों के अंदर ही वीर चिरंजी लाल 23 जुलाई 1893 को आर्यसमाज की बलिवेदी पर शहीद हो गए। पुनः पाँच वर्ष भी न हो पाए थे कि आर्य समाज के वीर सेनानी पं. लेखराम की हत्या 25 वर्षीय एक मुस्लिम युवक द्वारा उनके पेट में छुरा भोंककर कर दी गई। बलिदानों की यह परम्परा अनवरत रूप से आगे भी चलती रही। इन बलिदानों से महर्षि के अनुयायियों का उत्साह तो भंग न हुआ, वरन उन्होंने और अधिक सक्रियता के साथ ऋषि दयानन्द के मिशन को आगे बढाया।


ऐसे दीवाने आयों द्वारा भारतवर्ष में जो सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति की जा रही थी और जनता में भारत वर्ष के गौरवमय अतीत का स्मरण कराकर स्फूर्ति एवं उल्लास का संचार कर स्वसंस्कृति, स्वभाषा तथा स्वदेश के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जा रहा था तथा जिस ढंग से मिध्या मन्तव्यों, अन्धविश्वासों और कुरीतियों का खण्डन किया जा रहा था, उससे यह स्वाभाविक ही था कि नए-नए विरोधी उत्पन्न होते चले जायें। यही कारण था कि अंग्रेजी सरकार भी आर्यसमाज को राजद्रोही संगठन मानने लगी थी। फलस्वरूप उसके अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर उन पर अभियोग चलाए जाने लगे और उन्हें दण्डित किया जाने लगा। इससे और अधिक प्रोत्साहित होकर धर्मान्ध मुसलमानों ने भी आर्य नेताओं पर हमले बढ़ा दिए और उनकी हत्या के षड़यन्त्र रचने लगे। इन्ही षडयन्त्रों के शिकार शुद्धि आन्दोलन के सूत्रधार आर्य समाज के सर्वमान्य नेता और संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज भी तब हुए जब दिल्ली में शुद्धि के बहाने भोपाल के अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम हत्यारे ने उनकी 23 दिसम्बर 1926 को हत्या कर दी। ब्रिटिश सरकार द्वारा भी आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों, नगर कीर्तनों और वार्षिकोत्सवों में अनेक विध बाधाएं उत्पन्न की जाने लगीं। सन् 1926 के मुहर्रम के अवसर पर बरेली में दंगा हो गया जिसमें मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर आक्रमण किए गए। आक्रान्ताओं को गिरफ्तार करने के स्थान पर पुलिस ने आर्य समाज मंदिर में घुसकर हो रहे साप्ताहिक सत्संग की यज्ञवेदी को जूते पहरे पहरे ही पद्दलित कर दिया और निरपराध आयों को गिरफ्तार कर उनके यज्ञोपवीत उतरवाकर उन्हें अपमानित किया।


24 जुलाई 1927 को इस घटना पर विचार करने के लिए सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का अधिवेशन बुलाया गया जिसमें एक प्रस्ताव पारित कर आर्यों का एक महासम्मेलन दिल्ली में आहूत कर इन सब समस्याओं और कठिनाइयों पर विचार करने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार के प्रस्तावित इस प्रथम आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष महात्मा हंसराज जी बनाए गए। लाला लाजपतराय और पं. मदनमोहन मालवीय सरीखे अखिल भारतीय स्तर के नेता भी इस महासम्मेलन में सम्मिलित हुए अध्यक्ष पद से बोलते हुए महात्मा हंसराज जी ने कहा इस समय चारों ओर से मुसलमान भाइयों की तरफ से आर्य समाज का विरोध हो रहा है। यह इसी कारण से हैं कि वे जिस जाति को अपना ग्राम समझते थे, वह अब उनका ग्रास बनना पसंद नहीं करती। मैं समझता हूं कि शुद्धि के विरुद्ध हल्ला करने में मुसलमान भाई अपनी भारी कमजोरी का ही परिचय दे रहे हैं। मुसलमान सैकड़ों वर्षों से तब्लीग का काम करते आ रहे हैं, फिर भी कभी किसी ने शिकायत नहीं की। यदि अब हिन्दू या आर्य सदियों से बन्द हुए द्वार को खोल रहे हैं, तो उन्हें रुष्ट नहीं होना चाहिए। …. . श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान हुए आज ग्यारह मास ही बीते हैं और इन ग्यारह मासों में न्यूनाधिक एक दर्जन ऐसी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें मुसलमानों ने शुद्धि या हिन्दू संगठन के कार्य करने वालों पर प्राण लेवा आक्रमण किए हैं। ….हत्या होते देखकर बहुत से लोग कह उठते हैं कि अब क्या होगा ? परन्तु आर्य देवियों और आर्य सज्जनों! मैं इस वृद्धावस्था में भी इन घटनाओं को देखकर हताश नहीं होता, वरन सच्ची बात तो यह है कि जब मैं ये घटनाएं होती देखता हूं तो मेरे अन्दर धर्म प्रचार की, सत्य के प्रसार की और अधिक लगन जाग उठती है। जिस जाति और धर्म को इस प्रकार के बलिदान देने पड़ते हैं परमात्मा उस धर्म और उस जाति को बहुत ऊंचा ले जाता है।”इस महासम्मेलन में कुल स्वीकृत 18 प्रस्तावों में से महत्वपूर्ण था “इस सम्मेलन का यह दृढ निश्चय है कि अमर शहीद पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी के पवित्र पदचिन्हों का अनुसरण करने एवं वैदिक धर्म की पवित्र वेदी पर प्राण देने वाले हजारों वीर सन्नद्ध होंगे।” सम्मेलन में पारित एक अन्य प्रस्ताव आर्य रक्षा समिति तथा आर्यवीर दल की स्थापना के सम्बन्ध में भी था। इस प्रस्ताव के शब्द थे “वर्तमान संकट और सामाजिक सेवाओं के महत्व को दृष्टि में रखते हुए यह सम्मेलन आर्य जाति के धार्मिक तथा सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्नलिखित सज्जनों की आर्यरक्षा समिति बनाता है जो सार्वदेशिक सभा के अधीन होगी।


यह समिति देश भर का भ्रमण कर निम्न कार्यों का सम्पादन करे
(1) दश हजार ऐसे सेवकों की भर्ती करे जो धर्म रक्षा के लिए प्राण तक अर्पण करने के लिए सदा उद्यत रहें।
(2) रक्षा निधि के लिए 50 हजार रुपये एकत्र करें। इस निधि का धन सार्वदेशिक सभा के अधीन होगा।
(3) स्थान और अनुकूलता देखकर उस स्थान की प्रान्तीय आर्य प्रतिनिधि सभा की सलाह से और सार्वदेशिक सभा की अनुमति से सब आवश्यक उपायों का जिन में सत्याग्रह भी शामिल है, अवलम्बन करे ।
(4) यह समिति अपने कार्य के लिए नियम बनाए और सम्मेलन के समाप्त होते ही कार्य आरम्भ कर दें।


” समिति के सदस्य सर्वश्री महात्मा नारायण स्वामी (दिल्ली), पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति (दिल्ली) आदि बनाए गए। आर्य वीर दल के संगठन का सूत्रपात इसी प्रस्ताव के परिप्रेक्ष्य में दिल्ली में हुआ।इस समिति के प्रधान महात्मा नारायण स्वामी तथा मंत्री पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति बनाए गए। सम्मेलन समाप्त होते ही महात्मा नारायण स्वामी जी ने आर्य समाजों से अपील की कि वे यथा सम्भव शीघ्र 50 हजार रुपये एकत्र करें और 10 हजार आर्यवीर स्वयं सेवकों की भरती करें। आर्यों ने इन दोनों कार्यों के प्रति अच्छा उत्साह प्रदर्शित किया। महात्मा नारायण स्वामी चाहते थे कि दिसम्बर 1926 के अन्त तक ही ये दोनों लक्ष्य पूरे हो जाते, परन्तु 1928 के अन्त तक 10 हजार स्वयं सेवकों के स्थान पर साढ़े ग्यारह हजार स्वयं सेवक तो आर्यवीर दल में भरती हो गए, परन्तु रुपये केवल 27 हजार ही एकत्र हो पाए। इस कार्य में उत्तर प्रदेश एवं पंजाब के आयों ने सर्वाधिक उत्साह प्रदर्शित किया। फलस्वरूप और अधिक प्रतीक्षा किए बिना ही आर्य रक्षासमिति और आर्य वीर दल का संगठन विधिवत नियम निर्धारण पूर्वक 26 जनवरी 1929 से प्रारम्भ हो गया। आगे चलकर आर्यो (हिन्दुओं) और आर्य समाज पर जो अनेक विथ संकट आए उनमें आर्थरक्षा समिति और आर्यवीर दल ने समाज की अच्छी सेवा की।


दिल्ली में सम्पन्न हुए प्रथम आर्य महासम्मेलन में स्वीकृत प्रस्ताव में सामाजिक सेवाओं के महत्व की बात भी कही गई थी। प्रस्ताव के इस भाग को कार्यान्वित करने के लिए 15 दिसम्बर 1928 को समिति की बैठक बुलाकर आर्यवीर दल द्वारा की जाने वाली सामाजिक सेवाओं के सम्बंध में नियमों का निर्माण किया गया जिनमें बाद में 8 दिसम्बर 1935 को संशोधित करके 15 मार्च 1936 से उन्हें लागू कर दिया गया।


बाद में कतिपय ऐसी घटनाएं हुई जिनमें आर्य रक्षा समिति और आर्य वीर दल का कर्तव्य बड़े महत्व का रहा। इन घटनाओं का सम्बंध मुख्यतया हैदराबाद (दक्षिण) की रियासत में वहां की निजाम शाही सरकार द्वारा आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगा देने से था। इन्हीं के फलस्वरूप सन् 1938 ई. में आर्यसमाज को वहां ऐतिहासिक सत्याग्रह करना पड़ा। इस सत्याग्रह में आर्यरक्षा समिति और आर्यवीर दल का कर्तव्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा जिसमें आर्यसमाज को विजय श्री मिली और आगे चलकर यह रियासत भारत के स्वतंत्र होने पर भारत का अंग बन पाई।आर्यवीर दल के संगठन और कार्य में गति लाने के लिए आर्यरक्षा समिति के सहायक मंत्री श्री शिवचन्द्र को आर्यवीर दल सम्मेलनों का सूत्रपात करना पड़ा। दिल्ली में तो प्रथम आर्य महासम्मेलनोपरान्त ही 1929 में आर्यवीर दल का गठन हो गया था जिसकी शीघ्र ही नगर में धाक जम गई थी और गुण्डों का पराभव हो गया था।


ग्वालियर राज्य के शाजापुर में 10 अप्रैल 1936 को आर्यसमाज ने नगर कीर्तन के रूप में एक चल समारोह निकाला जिस पर नगर के कई सौ मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया। इससे एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई । स्थिति की जांच कर आवश्यक कार्यवाही करने के लिए सार्वदेशिक सभा ने श्री शिवचन्द्र जी को यहां भेजा। उन्होंने पाया कि नगर कीर्तन पर मुसलमानों का आक्रमण सर्वथा अनुचित और अकारण था। अतः उन्होंने ग्वालियर के डिप्टी इन्सपेक्टर जनरल पुलिस, जिला मजिस्ट्रेट, सुपरिन्टेण्डेण्ट पुलिस आदि अधिकारियों से भेंट कर उन्हें स्थिति की वास्तविकता से अवगत कराया। फलस्वरूप 65 मुसलमान गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें सजाएं दी गई।


इसी प्रकार इन्दौर रियासत के नारायणगढ़ आर्य समाज में श्री मेघराज जी एक पुराने एवं कर्मठ कार्यकर्ता थे। उन्होंने स्थानीय विद्यालय में अनेक दलित (अछूत) बालक बालिकाओं को शिक्षार्थं प्रविष्ट कराया था और हिन्दू मंदिरों के दरवाजे अछूतों के लिए खुलवाने का प्रयत्न किया था। उनकी इन प्रवृत्तियों से रुष्ट होकर अपरिवर्तनवादी पौराणिकों ने श्री मेघराज की 8 अप्रैल, 1938 को हत्या कर दी। इस सम्बन्ध में आर्यरक्षा समिति की ओर से इंदौर रियासत के प्रधानमंत्री को अनेक पत्र लिखे गए और समाचार पत्रों में आन्दोलन चलाया गया।


आगे जब हैदराबाद सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ तो सार्वदेशिक सभा के नेतृत्व में आर्यवीरों ने हैदराबाद में जो अभूतपूर्व कार्य किए उनका अपना ही एक इतिहास है। इस धर्मयुद्ध में आर्य समाज को विजय मिली थी, परन्तु खाकसारों के रूप में वहां के मुसलमानों ने एक संगठन खड़ा कर लिया था, जो अत्याधिक सम्प्रदायवादी था। खाकसारों की बढ़ती शक्ति से हैदराबाद के हिन्दू भयभीत रहने लगे थे। आर्य समाज की दृष्टि में इन सबका उपाय आर्यवीर दल के संगठन को और अधिक शक्तिशाली तथा देशव्यापी बनाना था।


इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मेरठ के गुरुकुल डोरली में जून जुलाई 1940 में आर्यवीर दल का एकशिविर लगाया गया इस शिविर में आर्यवीर दल के लिए समर्पित शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया जिन्होंने अनेक स्थानों पर आर्यवीर दल की स्थापना कर आर्यवीरों को प्रशिक्षित किया। इस प्रकार आर्य वीर दल में नई शक्ति का संचार हुआ और धीरे-धीरे उसके कार्यक्षेत्र का विस्तार होने लगा ।


आर्य रक्षा समिति एवं आर्य वीर दल के प्रथम संचालक श्री शिवचन्द्र को सार्वदेशिक सभा ने अक्टूबर 1940 में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए दक्षिण भारत (मद्रास प्रान्त) में भेज दिया क्योंकि उनको वैदिक धर्म केसिद्धांतों का अच्छा ज्ञान था और वे अंग्रेजी भाषा की भी अच्छी योग्यता रखते थे। उनके इस रिक्त हुए स्थान परपं. ओमप्रकाश जी त्यागी की द्वितीय संचालक के रूप में नियुक्ति की गई। 1942 में जब पं. इन्द्र विद्यावाचस्पतिसार्वदेशिक सभा के मंत्री थे तो उन्होंने आर्यवीर दल को सशक्त बनाने की दृष्टि से गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में एक शिविरका आयोजन किया जिसका उद्घाटन स्वयं पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति ने किया। त्यागी जी इस शिविर के अध्यक्ष व संचालक थे। डा. सुखदेव जी के सहयोग से आर्यवीरों को प्रशिक्षित करने लगे। अभी शिविर प्रारंभ हुए कुछ ही दिन हुए थे कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का आंदोलन प्रारंभ कर दिया। देश के युवकों के सम्मुख अब एक ही नारा था करो या मरो । अतः 20 अगस्त 1942 को शिविर की समाप्ति पर प्रायः सभी प्रान्तों से आये आर्यवीर युवकों ने अपने-अपने स्थानों पर लौटकर इस संघर्ष में सक्रिय भाग लिया, उन्हें कड़ी सजाएं दी गई। बहुत से आर्यवीर भूमिगत रहकर निरन्तर संघर्ष करते रहे।


अक्टूबर 1942 में बंगाल के मिदनापुर जिले में भयंकर तूफान आया जिसमें सैकड़ों गांव नष्ट हो गए। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 25 लाख व्यक्ति इस विपत्ति के कारण मृत्यु के ग्रास बन गए। आर्यवीर दल ने अपने सेवा कार्य के लिए जिले का तमलुक डिवीजन चुना और 42 ग्रामों में विशेष रूप से सहायता कार्य किया। यह सेवा कार्य पं. ओमप्रकाश त्यागी, प्रधान दलपति (सेनापति) आर्यवीर दल की अध्यक्षता में किया गया।


फरवरी 1944 में पाचवा आर्य महासम्मेलन दिल्ली में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में होना था जिसमें सिन्ध प्रान्त की सरकार द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर लगाए गए प्रतिबन्ध पर विचार होना था। इससे दिल्ली के मुसलमान भी उत्तेजित थे और आशंका थी कि वे इस सम्मेलन में बाधा डालेंगे। जुलूस पर हमला करेंगे और पंडाल को आग लगा देंगे। तब आर्यवीर दल के 500 सैनिकों ने पं. ओमप्रकाश त्यागी के नेतृत्व में आगे आकर आर्य नेताओं को आश्वस्त किया कि वे ऐसा कुछ नहीं होने देगे। उनकी तैयारी को देखकर धर्मान्ध मुसलमान ऐसा दुस्साहस नहीं कर पाए और आर्य महासम्मेलन निर्विघ्न सम्पन्न हो गया।


1945 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया तो अंग्रेजों को लगने लगा कि वे अब और भारत में टिक नहीं सकेंगे। जिससे वे भारत छोड़ने की तैयारी करने लगे। इधर भारत में अल्प संख्यक मुस्लिम समुदाय स्वतंत्र भारत में अपनी असुरक्षा में चिन्तित होकर पृथक पाकिस्तान की मांग करने लगा जिससे पंजाब और बंगाल के मुस्लिम बहुल प्रान्तों में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। नोआखाली (बंगाल) का देगा इनमें प्रमुख था। अक्टूबर 1946 में नोआखाली में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर नृशंस अत्याचार करने शुरू कर दिए। अग्निकाण्ड, लूटपाट, स्त्रियों का बलात् अपहरण, उनके साथ जबर्दस्ती विवाह व बलात्कार, बलपूर्वक धर्मान्तरण तथा जघन्य हत्याओं द्वारा नोआखाली तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश में हाहाकार मच गया। आर्य रक्षा समिति तथा आर्यवीर दल ने भी इस अवसर पर अपने कर्तव्य का पालन किया। हिन्दुओं की रक्षा तथा पीड़ितों की सहायता के लिए आर्य समाज के इन संगठनों ने मैदान में उतरकर संगठित एवं व्यवस्थित रूप से कार्य प्रारंभ कर दिया। यह कार्य इतना गुरुतर था कि सार्वदेशिक सभा को इसके लिए अलग से आर्य समाज रिलीफ सोसायटी बनानी पड़ी। इस कार्य को भी पं. ओमप्रकाश त्यागी और उनके स्वयंसेवकों ने कलकत्ता पहुंच कर सम्पन्न किया।


उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त में भी मुसलमानों ने हिन्दुओं पर नृशंस अत्याचार करने आरंभ कर दिये ।नौशहरा, मरदान और रावलपिण्डी आदि में मुसलमानों ने अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार किए।


नोआखाली के समान रावलपिण्डी, मरदान आदि में भी आर्यवीर दल ने हिन्दुओं की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया।


गुड़गांव (हरियाणा) जिले के मेवजाति के मुसलमानों ने तथा भरतपुर एवं अलवर आदि के बहुत से जाटों से मुसलमान बने लोगों ने दिल्ली पर आक्रमण कर पुनः मुस्लिम राज्य स्थापित करने को लेकर हिन्दुओं को लूटना आरम्भ कर दिया। उनके अत्याचारों और लूटमार से हिन्दुओं में हाहाकार मच गया। इससे परित्राण दिलाने के लिए आर्यवीर दल के प्रधान सेनापति पं. ओमप्रकाश त्यागी ने आर्यवीरों के साथ तुरन्त गुड़गांव प्रस्थान किया और स्थानीय आर्यवीरों के सहयोग से मुस्लिम आतताइयों का मुकाबला किया। इस संघर्ष में त्यागी जी की सहायता श्री रामगोपाल शालवाले तथा श्री हीरालाल दलपति रिवाड़ी आर्यवीर (दल) ने कन्धे से कन्धा मिलाकर की।


भारत के विभाजन के समय अगस्त 1947 में पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त, सिन्ध और बिलोचिस्तान में भीषण नरसंहार शुरू हो गया। इस अवसर पर धर्मान्ध मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं और सिखों का जिस ढंग से हत्या किया गया, उनकी स्त्रियों का अपहरण कर उनके साथ जो बलात्कार किए गए, जिस प्रकार बलपूर्वक लोगों का धर्मपरिवर्तन कर उन्हें इस्लाम का अनुयायी बनाया गया, जिस ढंग से हिन्दुओं और सिक्खों के धर्म मन्दिरों को अपवित्र किया गया और लूटमार के अनन्तर उनके घर बार को भस्मसात कर दिया गया इसका वृतान्त अत्यन्त वीभत्स एवं घृणित है। भारत के जो प्रदेश पाकिस्तान के अंतर्गत कर दिए गए थे उनमें खून की नदियां बहने लगीं और जलते हुए ग्रामों और नगरों के धुएं से आकाश में कालिमा छा गई। गैर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान में रह सकना सम्भव नहीं रहा और वहां से लाखों हिन्दू और सिक्ख अपना घरबार सम्पत्ति व कारोबार को सदा के लिए छोड़कर भारत आने लगे। शरणार्थियों की यह समस्या अत्यंत गंभीर थी। पश्चिमी पाकिस्तान के ये लाखों हिन्दू भारत के विभिन्न प्रदेशों में शरण लेने के लिए मारे-मारे फिरने लगे। ये विशेषकर हरियाणा, पूर्वी पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में आए क्योंकि ये प्रदेश पाकिस्तान के अधिक निकट थे। आर्य समाज और आर्यवीर दल ने शरणार्थियों की सहायता व सेवा कार्य को अपने हाथ में लिया। प्रायः सभी नगरों व प्रमुख स्थानों के आर्य सेवा केन्द्र और शरणार्थी आर्य समितियों की स्थापना की गई। दिल्ली के आर्यवीर दल ने दिल्ली के बड़े स्टेशन पर अपना शिविर लगाया और पंजाब से रेलमार्ग से आने वाले शरणार्थियों की सब प्रकार से करने सहायता का श्लाघनीय कार्य किया। आर्य समाज के सबसे बड़े मन्दिर दीवानहाल (चांदनी चौक) की विशाल इमारत शरणार्थियों से ऊपर से नीचे तक खचाखच भर गई जहां उन्होंने चिरकाल तक आश्रय पाया। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, पंजाब के विभिन्न नगरों में भी आर्यवीरदल के आर्यवीरों ने शरणार्थियों की इसी प्रकार सेवा सुश्रुशा की। पूर्वी पाकिस्तान अब बंगलादेश से आने वाले शरणार्थियों के लिए भी इसी प्रकार के केन्द्र विलोनिया, जयनगर बानपुर और सुन्दरनगर में खोले गए। दिल्ली के दीवानहाल की तरह कलकत्ता का आर्य समाज, विधानसरणी शरणार्थियों का आश्रय स्थल बना। हावड़ा और सियालदाह में भी आर्य समाज ने सहायता शिविर स्थापित किए।


इसी प्रकार जहां-जहां भी जब-जब भी भूकम्प आया, बाढ़ आई, तूफान आया, दुर्भिक्ष पड़ा और अन्य कोई आपदा आई तो आर्य समाज और आर्यवीर दल ने वहां-वहां पहुंचकर स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य सेवा कार्य किया। इसके साथ ही आर्य समाज संगठन के विभिन्न शताब्दी समारोहों, आर्य महासम्मेलनों, कुम्भ मेलों और उत्सवों में भी संगठित रूप से उल्लेखनीय सेवा कार्य किया है।

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